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वर्चस्व की लड़ाई में उलझी यूपी की दलित राजनीति

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भीम आर्मी नेता चंद्रशेखर आजाद ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस की शुरुआत में ही मायावती को बधाई देते हुए अपनी सदाबहार शिकायत भी दोहरायी। बोले, सबसे पहले तो वो मायावती से ही अपेक्षा रखे हुए थे, लेकिन बहनजी ने मुंह मोड़ लिया। 24 घंटे पहले ही चंद्रशेखर आजाद ने ट्विटर पर लिख कर बताया था कि उनको और दलित समाज को अखिलेश यादव से क्या अपेक्षा है – ‘गठबंधन के अगुवा का दायित्व होता है कि वो सभी समाज के लोगों के प्रतिनिधित्व और सम्मान का खयाल रखे।’

भीम आर्मी का सपा से मोहभंग: मीडिया के सामने आकर चंद्रशेखर आजाद ने अखिलेश यादव पर अपना अपमान करने का आरोप लगाया। मायावती की ही तरह चंद्रशेखर आजाद ने अपने साथ दलितों के अपमान का भी करार दिया – और फिर ऐलान किया कि समाजवादी पार्टी के साथ उनका कोई चुनावी गठबंधन नहीं होने जा रहा है।

चंद्रशेखर आजाद ने बताया कि कैसे वो छह महीने से चुनावों की तैयारी कर रहे थे और महीने भर से अखिलेश यादव के साथ गठबंधन को लेकर बातचीत कर रहे थे। भीम आर्मी नेता ने अखिलेश यादव पर अपना कीमती वक्त बर्बाद करने का आरोप भी लगाया। बाद में जब अखिलेश यादव ने प्रेस कांफ्रेंस की तो भीम आर्मी नेता को जवाब भी दिया। अखिलेश यादव ने कहा, ‘लखनऊ में किसी को रहने की जरूरत नहीं…’ असल में चंद्रशेखर आजाद बार बार दोहरा रहे थे कि वो गठबंधन के लिए ही दो दिन से लखनऊ में डेरा डाले हुए थे।

पहले तो लगा चंद्रशेखर आजाद का भी यूपी चुनाव में AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी की तरह ही कोई और मकसद है। बातें कुछ और हो रही हैं, निशाने पर कुछ और है। चंद्रशेखर आजाद सामाजिक न्याय की राजनीति का दावा करने वाले अखिलेश यादव पर दलितों को अलग रखने का इल्जाम लगा रहे थे। चंद्रशेखर आजाद के हमले में मायावती का भी हित समझ में आ रहा था और गैर-यादव ओबीसी नेताओं के पार्टी छोड़ने से परेशान बीजेपी का भी। निशाने पर सीधे सीधे अखिलेश यादव रहे, लेकिन तस्वीर साफ होते देर भी नहीं लगी।

बड़ी हिस्सेदारी क्यों मिले: चंद्रशेखर आजाद की बातों से ही लगता है कि अखिलेश यादव आजाद समाज पार्टी के साथ गठबंधन को क्यों नहीं तैयार हुए होंगे। चंद्रशेखर आजाद बार बार एक बात दोहरा रहे थे – ‘जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’

साफ है अखिलेश यादव के लिए तो समाजवादी पार्टी के नेताओं के लिए टिकट देना चैलेंज बना हुआ है, भला चंद्रशेखर आजाद को आबादी के हिसाब से टिकटों में हिस्सेदारी क्यों देने लगे। अखिलेश यादव के पास भी चंद्रशेखर आजाद के लिए ज्यादा से ज्यादा दो तरह के ऑफर रहे होंगे – या तो वो स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं की तरह समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर लें या फिर अपने चुनाव लड़ने के लिए एक सीट लेलें।

थक हार कर चंद्रशेखर आजाद विपक्षी पार्टियों के साथ मिल कर चुनाव लड़ने और ऐसा नहीं हो पाया तो अकेले मैदान में उतरने की बात करने लगे हैं। वो बिहार चुनाव कैसे लड़े ये भी याद दिला रहे हैं। नतीजे तो सबको मालूम हैं ही।

चंद्रशेखर आजाद का बीजेपी विरोध भी मायावती जैसा ही लगता है। वो बीजेपी के खिलाफ एकजुटता की बात तो कर रहे हैं, लेकिन अब तक न तो वो किसी के साथ हैं न कोई और उनके साथ खड़े होने को तैयार है। मायावती की तरह ही अखिलेश यादव भी चंद्रशेखर आजाद से दूरी बना कर चल दिये।

बीच में एक दौर ऐसा भी आया जब लगा कि चंद्रशेखर आजाद कांग्रेस के साथ होंगे। चाहे गठबंधन करके या पार्टी ज्वाइन करके। बात तो तब बने जब आबादी के हिसाब से दावेदारी की जिद को समझने की कोशिश करें। सत्ता की राजनीति के लिए चुनाव लड़ना और जीतना भी जरूरी होता है।

अगर चंद्रशेखर आजाद अपनी तुलना मायावती से कर रहे हैं या फिर स्वामी प्रसाद मौर्य से बढ़ कर समाजवादी गठबंधन में हिस्सेदारी चाहते हैं तो कहीं से भी एक चुनाव जीत कर शुरुआत करनी होगी।

हालात देख कर तो यही लग रहा है कि दलितों की फिक्र न तो चंद्रशेखर आजाद को है, न मायावती को रह गयी है। अब तो ऐसा लगता है जैसे मायावती को यूपी की सत्ता में वापसी से भी कहीं ज्यादा अपनी विरासत और बीएसपी के भविष्य आकाश आनंद की फिक्र होने लगी है!

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